उत्तराखंडधार्मिक आयोजनपर्व

उत्तराखंड के पौराणिक “सेलकू” मेले में लगाई उच्च हिमालयी फूलों की प्रदर्शनी, पर्यटन से जोड़ने की अनूठी कवायद

देहरादून। उत्तराखंड में मेले-थैलों का आयोजन पौराणिक काल से होता आ रहा है। मनोरंजन के अलावा लोक संस्कृति और विरासत को संजोए मेले देव पूजा के अलावा देवताओं के आशीर्वाद से भी जुड़े हैं। ऐसा ही एक पौराणिक मेला गंगा घाटी की टकनौर पट्टी में सेलकू के नाम से प्रसिद्ध है। गंगा के मायके यानी मुखबा गांव तक होने वाला सेलकू पर्व की इन दिनों  टकनौर क्षेत्र में धूम है। आज मेले का आयोजन दयारा बुग्याल के आधार शिविर रैथल गांव में भव्य रूप में हुआ। यहां सेलकू मेले में स्व चंदन सिंह राणा ने पुष्प प्रदर्शनी से जोड़कर पर्यटन का रूप दिया है। आज ग्रामीण ने इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सेलकू मेले में भव्य पुष्प प्रदर्शनी के साथ देव नृत्य का लुत्फ उठाया। इस मौके पर गंगोत्री विधायक सुरेश चौहान ने कहा कि सरकार पौराणिक मेलों को संरक्षित कर पर्यटन से जोड़ने का प्रयास कर रही है।

रैथल गांव के पूर्व प्रधान एवं दयारा पर्यटन समिति के अध्यक्ष मनोज राणा ने बताया कि रैथल गांव में जगदम्बा प्रांगण में दो दिवसीय क्षेत्र के ईष्ट समेश्वर देवता का सेलकू मेला धूमधाम से मनाया गया। मेले में बुग्यालों से लाये गए रंगबिरंगे फूलों की प्रदर्शनी लगाई गई। यह प्रदर्शनी मेले को पर्यटन से जोड़ने की पहल है। इस परंपरा को क्षेत्र के दिग्गज नेता रहे स्व चंदन सिंह राणा ने सेलकू मेले में शामिल किया था, जो आज भी ग्रामीण बरकरार रखे हुए हैं। मेले में पुष्प प्रदर्शनी के साथ ईष्ट देवता समेश्वर की पूजा की जाती है। इसके साथ ही आराध्य देवता को फूल प्रसाद चढ़ाया जाता है। साथ ही दूरदराज से पहुंचे लोगों ने देवता का आशीर्वाद लिया और सुख, समृद्धि और खुशहाली की कामना की। इस मौके पर मेले में शामिल हुए गंगोत्री विधायक सुरेश चौहान ने कहा कि दयारा पर्यटन सर्किट पर सरकार काम कर रही है। जल्द योजनाएं धरातल पर उतारी जाएगी।

मेले के आयोजन में इन्होंने निभाई अहम भूमिका

मेले का आयोजन पंच मालगुजार रैथल किशन सिंह राणा,पंच मालगुजार क्यार्क शिवेन्द्र सिंह राणा , पंच मालगुजार बन्द्राणी सुन्दर सिंह भण्डारी, पंच मालगुजार नटीन बचन सिंह रावत, पंच मालगुजार भटवाड़ी भगवती प्रसाद नौटियाल, ग्राम प्रधान रैथल शुशीला राणा, ग्राम प्रधान नटीन महेन्द्र पोखरियाल, क्षेत्र पंचायत सदस्य रैथल अंकिता राणा, दयारा समिति के अध्यक्ष मनोज राणा, सचिव सुरेश रतूड़ी,देव पुजारी गोपाल राम रतूड़ी, संतोष रतूड़ी, पलगेर सहेन्द्र राणा, बलवीर पंवार,भागवत राणा, महेंद्र सिंह राणा, रामचन्द्र पंवार,संतोषी ठाकुर, विपिन राणा महिला मंगल अध्यक्ष सुनीता राणा, ज्ञानेंद्र सिंह राणा,धर्म सिंह राणा आदि मौजूद रहे।

टकनौर में इसलिए मनाया जाता सेलकू मेला

प्रदेश के ऊंचाई वाले इलाकों में सर्दियां दस्तक देने जा रही है, ऊंचे बुग्यालों में उगने वाले रंग बिरंगे विभिन्न प्रजातियों के फूल भी पखवाड़े भर के भीतर सूखना शुरू हो जाएंगे। उत्तरकाशी जनपद के टकनौर और नाल्ड कठूड़ में हरियाली के खत्म होने और लंबी सूखी सर्दियों के स्वागत में एक अनूठा जश्न मनाया जाता है। पूरी रात भर ऊंचे बुग्यालों से चुनकर लाए गए फूलों को चादरनुमा बिछाकर ग्रामीण इस चादर के इर्द गिर्द पारंपरिक नृत्य का आयोजन करते हैं। इसी सप्ताह से हरियाली को अलविदा कहने का यह जश्न शुरू होने जा रहा है। सेलकू नाम से प्रसिद्ध यह पर्व टकनौर और नाल्ड कठूड के आठ से ज्यादा गांवों में मनाया जाता है, बसावट के लिहाज से सबसे पुराने इन गांवों में सदियों से हरियाली को अलविदा कहने के इस जश्न को मनाने की परंपरा रही है। रैथल में शीतकाल को अलविदा कहने का यह पर्व धूमधाम से मनाया गया।

सेलकू यानी सोएगा कौंन

गर्मियों की दस्तक के साथ जब ऊंचे बुग्यालों में जमी बर्फ पिघलने लगती है तो बुग्यालों में ब्रह्मकमल, मासी समेत विभिन्न प्रजातियों के फूल भी खिलने शुरू हो जाते हैं, मानसून की दस्तक के साथ ही ऊंचे बुग्याल अलग अलग रंगों के इन फूलों की चादर ओढ़ लेते हैं। सावन मास बीतने के साथ ही ऊंचे बुग्यालों में सर्दियां दस्तक देने लगती है तो यह फूल भी सूखना शुरू हो जाते हैं, लेकिन इन ऊंचे बुग्यालों के आधार शिविर गांवों में निवासरत ग्रामीण इन फूलों के सूखने से पहले इन्हें तोड़कर गांव के आराध्य देव को अर्पित करते हैं।
ग्रामीण ऊंचे बुग्यालों से अलग अलग प्रजातियों के फूलों को तोड़कर गांव के मंदिर प्रांगण में जमा करते हैं जहां इन्हें करीने से चादर के रूप में सजाया जाता है। ग्रामीण पूरी रात भर इन फूलों की चादर के इर्द गिर्द पारंपरिक नृत्य रासौं, तांदी का आयोजन करते हैं। ‘सेलकू’ शब्द का अर्थ ‘सोएगा कौन’ से लगाया जाता है। पूरी रात भर होने वाले इस उत्सव में दूर दराज के ग्रामीणों के साथ ही गांव से अन्य गांवों में ब्याही बेटियां भी मायके पहुंचती है। पूरे रात भर के इस जश्न का समापन अगले दिन होता है जब गांव के ईष्ट आराध्य देवता अवतरित होकर धरधार कुल्हाड़ियों फरसे के ऊपर चलते हुए ग्रामीणों की समस्या का निदान बताता है।

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