उत्तराखंड में रजिस्ट्री फर्जीवाड़े में जेल गए नामी वकील विरमानी की जामनत खारिज, हाईकोर्ट में इसलिए बढ़ सकती मुश्किलें
देहरादून। करोड़ो की जमीनों की रजिस्ट्री फर्जीवाड़े में नामी अधिवक्ता कमल विरमानी की जामनत याचिका जिला एवं सत्र न्यायाधीश प्रदीप पंत की कोर्ट से खारिज हो गया है। अब विरमानी के पास हाइकोर्ट में जमानत याचिका दायर करने का विकल्प है।
उल्लेखनीय है कि राजधानी में डीएम दफ्तर से लगे रिकॉर्ड रूम में दूसरों की जमीनों के असली दस्तावेज फाड़कर उनकी जगह फर्जी व्यक्ति के नाम करोड़ों की जमीनें दर्ज कर कूटरचित दस्तावेज लगाए गए। जब जमीन के असली मालिक आये तो रिकॉर्ड में जमीन किसी अन्य के नाम दर्ज हुई पाई गई। मामला डीएम और सीएम के संज्ञान में आने पर इस फर्जीवाड़े की एसआईटी जांच कराई गई। इस मामले में सहारनपुर के केपी सिंह, देहरादून बार एसोसिएशन के नामी वकील कमल विरामनी समेत एक गिरोह का नाम सामने आया। एसआईटी ने फर्जीवाड़े के तार जोड़े तो एक साथ इस फर्जीवाड़े को अंजाम देने वाले करीब 9 लोगों को अब तक गिरफ्तार कर जेल भेजे गए। इस मामले में शहर के नामी वकील कमल विरमानी का नाम आने से हड़कंप मच गया। विरमानी की गिरफ्तारी के बाद कई और लोगों के नाम भी चर्चाओं में चल रहे हैं। लेकिन अभी एसआईटी जांच जारी रहने और मामले पर सरकार की नजर होने से संदिग्ध अपराधिक प्रवृत्ति के लोग डरे सहमे हुए हैं। बहरहाल रजिस्ट्री फर्जीवाड़े के मामले में 27 अगस्त से जेल में बंद दून के नामी अधिवक्ता कमल विरमानी की जमानत याचिका पर 23 सितंबर को सुनवाई की गई थी। बचाव व अभियोजन पक्ष की करीब ढाई घंटे की बहस सुनने के बाद जिला जज प्रदीप पंत ने फैसला सुरक्षित रख लिया था। जमानत याचिका पर बचाव पक्ष की ओर से सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा को भी दून लाया गया था। जबकि अभियोजन पक्ष की ओर से जिला शासकीय अधिवक्ता गुरु प्रसाद रतूड़ी ने तर्क रखे थे। आज जमानत याचिका पर कोर्ट ने निर्णय देते हुए खारिज कर दी है।
कोर्ट की कड़ी टिप्पणी से बढ़ी विरमानी की मुश्किलें
जिला जज की कोर्ट ने जो जमानत खारिज करने का आदेश जारी किया है, उसमें बिंदुवार तर्क दिए गए हैं। कोर्ट ने अंतिम पैरा में जो तर्क और टिप्पणी दी है, उससे विरामनी की मुश्किलें बढ़ती जा रही है। कोर्ट ने जमानत याचिका खारिज करने के पीछे स्पष्ट टिप्पणी की कि……. ” यह इस प्रकृति का अपराध है, जिससे लोगों का न्याय व्यवस्था पर से ही आस्था हट जाती है, क्योंकि वर्तमान अपराध के अंतर्गत जो कूटरचित दस्तावेज बनाये गए हैं , उनकी प्रमाणित प्रतिलिपियों को न्यायालय भी भारतीय साक्ष्य अधिनियम के प्रवधानों के अंतर्गत 30 वर्ष प्राचीन होने के आधार पर सामान्य रूप से साबित करने की अपेक्षा नहीं रखता है। इन परिस्थितियों में इस प्रकृति के अपराध से न्याय प्रशासन की नींव पर प्रहार होता है, और अभियुक्त का उसी न्यायालय प्रशासन का एक हिस्सा होने के कारण से ऐसे अपराध में संलिप्तता होना और भी गंभीर हो जाता है। ऐसे में न्यायालय ने आरोपी की जमानत अर्जी को खारिज कर दिया है।”