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विश्व युद्ध प्रथम में शहीद हुए उत्तराखंड के सैनिक की ऑडियो रिकॉर्डिंग 105 साल बाद भारत पहुंची

देहरादून। प्रथम विश्वयुद्ध में शहीद हुए गढ़वाल राईफल्स में तैनात उत्तराखंड के एक सैनिक की ऑडियो रिकॉर्डिंग 105 साल बाद भारत पहुंच गई है। जर्मनी स्थित हम्बोल्ट विश्वविद्यालय (बर्लिन) के लौटार्चिव (ध्वनि संग्रह) ने फ़र्स्टपोस्ट को गढ़वाल राइफल्स शहीद सैनिक शिब सिंह कैंतुरा की 2 जनवरी 1917 में रिकॉर्ड की गई दुर्लभ ऑडियो पुख्ता दस्तावेजों के साथ भेजी है। जर्मनी से मिले दस्तावेजों के अनुसार शिब सिंह कैंतुरा टिहरी और रुद्रप्रयाग जनपद के जखोली क्षेत्र से लगे लुथियाग गांव के रहने वाले हैं। हालांकि अभी शिब सिंह के बारे में पुख्ता जानकारी सरकारी एजेंसी और सेना नहीं दे पा रही है। ऑडियो रिकॉर्डिंग और जर्मनी से पहुंचे दस्तावेजों के आधार पर अधिकारी अध्ययन कर शहीद सैनिक के परिवार की पुष्टि करने की बात कह रहे हैं।

गढ़वाल राइफल्स में सेवा देने वाले राइफलमैन शिब सिंह कैंतुरा की एक दुर्लभ ऑडियो रिकॉर्डिंग भारत पहुंच गई है। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी में हाफ-मून कैंप में युद्ध बंदी के रूप में रहे शिब सिंह घर नहीं लौटे थे। जर्मनी से मिले दस्तावेज के अनुसार युद्ध बंदी के रूप में सेवा देने के बाद शिब सिंह का जर्मन में निधन हो गया और उन्हें लंदन के गोल्डर्स ग्रीन श्मशान में दफनाया गया। बर्लिन के हम्बोल्ट विश्वविद्यालय में लौटार्चिव (ध्वनि संग्रह) ने फ़र्स्टपोस्ट को गढ़वाल राइफल्स में तैनात इस सैनिक की दुर्लभ रिकॉर्डिंग प्रदान की है। यह रिकार्डिंग यहां संग्रहित करीब 7,000 में से एक है। इन रिकॉर्डिंग को रॉयल प्रशिया फोनोग्राफिक आयोग ने अपने अभिलेखागार में रखा है। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान युद्धबंदियों के रूप में सेवा करने वाले भारतीय सैनिकों के विश्वविद्यालय संग्रह में केवल कुछ रिकॉर्डिंग उपलब्ध हैं।

 

रिकॉर्डिंग में शिब सिंह ने कही ये बातें

भारत की 39वीं गढ़वाल राइफल्स के रेजिमेंटल नंबर 2396 राइफलमैन शिब सिंह कैंतुरा का जन्म लुथियाग गांव (दस्तावेजों में लुथियाग का उल्लेख) में हुआ था। उस समय यह गांव टिहरी गढ़वाल का हिस्सा था। 2 जनवरी 1917 को रिकॉर्ड की गई ऑडियो रिकॉर्डिंग में, वह रुद्रप्रयाग से 42 किमी दूर जखोली में अपने स्कूल के दिनों के बारे में एक दिलचस्प कहानी बताता है। शिब कैंतुरा ने रिकॉर्डिंग में कहा कि एक बार गुस्से में अपनी कक्षा के एक गरीब लड़के को थप्पड़ मार दिया था। चूँकि स्कूल का प्रधानाचार्य उसके पिता का घनिष्ठ मित्र था, इसलिए डरे हुए शिब अपने गाँव के पास के जंगल में भाग कर इसलिए छिप गया कि कहीं उसके माता-पिता उसे कड़ी सजा न दें। तीन दिनों तक जंगल में छिपने के बाद, उसने अपने गांव लौटने का फैसला किया। शिब सिंह ने इस बारे में कोई जानकारी साझा नहीं की है कि वह जंगल में कहां रहा और उसने भोजन और पानी का प्रबंधन कैसे किया।

 

संग्रहालय ने शिब सिंह का हस्तलिखित पत्र भी भेजा

लुटार्चिव ने शिब सिंह कैंतुरा की दुर्लभ रिकॉर्डिंग से संबंधित विभिन्न दस्तावेज़ भी प्रदान किए हैं, जिसमें एक कार्मिक पत्रक, बोली जाने वाली हिंदी पाठ और ध्वन्यात्मक अंग्रेजी पाठ शामिल है। शिब ने हस्तलिखित शीट या ऑडियो रिकॉर्डिंग में अपने पैतृक गांव का नाम नहीं लिया है। हालाँकि, रिकॉर्डिंग के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली शीट में केनतुरा के गाँव और स्कूल के स्थान का उल्लेख है।

विश्वविद्यालय में 7000 से ज्यादा रिकॉर्डिंग

बर्लिन की सार्वजनिक सेवा के हंबोल्ट विश्वविद्यालय के एक कर्मचारी, निको बिशॉफ़ कहते हैं: “हमारे अभिलेखागार में 7,000 से अधिक रिकॉर्ड हैं, जिसमें दुनिया भर के युद्धबंदियों के कई रिकॉर्ड शामिल हैं।अभी तक यहां भारत के 318 रिकॉर्डिंग मौजूद हैं। इसके अलावा नेपाल, पाकिस्तान, भूटान और अन्य देशों के लोगों की रिकॉर्डिंग भी सूचीबद्ध हैं। भारत से पीओडब्ल्यू की रिकॉर्डिंग की संख्या के बारे में पूरी तरह से सटीक जानकारी अभी तक नहीं मिली है।रॉयल प्रशिया फोनोग्राफिक आयोग 1915 से पहले का है जब संस्कृति मंत्रालय ने इसे विल्हेम डोगेन के सुझाव पर स्थापित करने का निर्णय लिया था। आयोग का व्यापक और दुर्लभ ध्वनि संग्रह अब बर्लिन में हम्बोल्ट विश्वविद्यालय में लौतार्चिव ध्वनि संग्रह में रखा गया है। आयोग ने विभिन्न जर्मन POW शिविरों में आयोजित विदेशियों के भाषण और संगीत को रिकॉर्ड किया।

जखोली स्कूल में पढ़ा था शिब सिंह

शिब सिंह कैंतुरा ने जखोली स्कूल में पढ़ाई की थी। तब यह क्षेत्र टिहरी जिले में आता था।  हालांकि 1997 में रुद्रप्रयाग जिले में शामिल किया गया था। वहां लुथियाग गांव में कैंतुरा लोग रहते हैं। इनमें से कुछ बाहर बस गए हैं। जबकि कुछ आसपास के नजदीकी इलाके में रहने लगे।

 

देव सिंह कैंतुरा भी हुए थे युद्ध में शहीद

गांव के युवक दीपक कैंतुरा कहते हैं, “मेरे परदादा देव सिंह कैंतुरा भी प्रथम विश्वयुद्ध में लड़े और फ्रांस में उनकी मृत्यु हो गई थी। मेरे परदादा को मरणोपरांत एक पीतल युद्ध स्मारक पट्टिका से सम्मानित किया गया, जिसे हमने संरक्षित किया है। शिब सिंह के बारे में फिलहाल कोई जानकारी नहीं मिली। गांव के बुजुर्ग और सरकारी रेकॉर्ड में इसकी जानकारी देखी जा रही है।

लुथियाग से जखोली 20 किमी

दीपक के अनुसार लुथियाग से जखोली तक की दूरी 20 किलोमीटर है। ऐसे में शिक्षा प्राप्त करने में शिव सिंह के संघर्ष को भी देखा जा सकता है। महज 5 या 6 साल की उम्र में, उन्होंने जखोली के स्कूल में दाखिला लिया। शिब सिंह ने रिकॉर्डिंग में जिस घटना के बारे में बताया वह उसके साथ कक्षा एक में हुई थी, उस समय स्कूल में कुल 14 छात्र थे। अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद वह की गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हो गए।

दस्तावेजों में दर्ज है यह जानकारी

वरिष्ठ पत्रकार राजू गुसाईं कहते हैं कि जर्मनी से मिले दस्तावेजों के अनुसार जब शिब सिंह कैंतुरा ने येेयुद्ध लड़ा था उस समय वह जवान थे। उन्हें जर्मनी में हाफ मून कैंप में अन्य POWs के साथ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। भोजन, वस्त्र, स्वच्छता और चिकित्सा सुविधाओं की कमी से उनका स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ, और संक्रमण से वह बीमार पड़ गए। शिब सिंह की मृत्यु का कारण “युद्ध डायरी के हताहत परिशिष्ट (संख्या WWI / 184/4),” खंड 27, एक पुरानी सेना मुख्यालय फ़ाइल में दर्ज है। दस्तावेज़ के अनुसार, जब शिब सिंह को POW शिविर से रिहा किया गया, तो उसे फुफ्फुस और ब्रोन्कोपमोनिया था। जिसके बाद इस महान सैनिक का निधन हो गया और जर्मन कैद से उनकी रिहाई के बाद 15 फरवरी 1919 को लंदन के गोल्डर्स ग्रीन श्मशान में उनका अंतिम संस्कार किया गया।

 

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